Wednesday, October 5, 2011

अपने शहर क मौसम


अपने शहर क मौसम फ़िर हमें
याद आ गया है।
गलियों में खो जाने का डर फ़िर
हमें याद आ गया है।
कितनी दूर निकल आए है हम
जो लौट ना सके
अपने लोगो से बिछड़ जाने का डर
याद आ गया है।
बचपन बीता कहीं, जवानी बीतेगी कैसे
बूढे होने का डर, बूढे होके विलुप्त हो जाने डर
याद आ गया है।
तस्वीरों में दिखते नहीं अब अपने लोग
खुद से ही खुद को भुलाने का डर
याद आ गय है।
वो खेलत मैदान, उडती पतंगे
वो चलती भरी पूरी सड़कें
वो दोस्तों की मस्ती, अल्लड बचपन
फ़िर ना लौट पाने का डर
याद आ गया है।
क्यों निकले थे हम,कैसे-कैसे है आए
फ़िर एक नए शहर को अपनाने का डर
याद आ ग़या है।

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